
यह तो सर्वविदित है कि मानवी सृ्ष्टि पंचभौतिक है और पंचभूतों (जल,अग्नि,वायु,पृ्थ्वी,आकाश) के गुण तथा प्रभाव से ही यह सर्वदा प्रभावित होती है। इन्ही पंचतत्वों का अन्तर्जाल कहीं पर सूक्ष्म तो कहीं पर स्थूल रूप से प्रकट एवं अप्रकट स्वरूप में विद्यमान रहता है। इनकी विशेषता यह भी है कि परस्पर सजातीय आकर्षण के साथ ही विजातीय सश्लेषण में विशिष्ट गुणों की उत्पत्ति भी देखी जाती है।
ग्रह,नक्षत्र,तारे,वनस्पतियाँ,नदी,पर्वत,समस्त जीव जन्तु इत्यादि इन्ही पंचभूतों से निर्मित हुए हैं। वैदिक ज्योतिष की बात की जाए तो इसके आधार में "यथा पिंण्डे तथा ब्राह्मंडे" का यही एक सूत्र काम करता है। इसी आधार पर ग्रहों एवं नक्षत्रों से पृ्थ्वी पर उपस्थित प्राणियों के साथ आन्तरिक संबंध निरूपित होते हैं। अन्य पिण्डों के सापेक्ष सौरमंडल के पिण्डों का आपस में इतने निकट का सम्बंध है , जिस प्रकार से की एक मोहल्ले में बने हुए घरों का परस्पर सम्बंध एवं प्रभाव होता है।
इन ग्रह पिण्डों का पृ्थ्वी पर विद्यमान समस्त जड चेतन पदार्थों पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन तो हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा युगों पहले ही ज्ञात कर लिया गया था। केवलमात्र स्थूल प्रभाव ही नहीं अपितु उनके सूक्ष्मतम प्रभाव के सम्यक विवेचन का नाम ही वैदिक ज्योतिष है।
अन्य जीवों की अपेक्षा मानवी मस्तिष्क की जटिलता तो सर्वविदित ही है।
ह्रदय की स्पन्दनशीलता(धडकनों) में विकृ्ति आने पर जिस ह्रदय रोग(heart attack) का आधुनिक तकनीक से निदान एवं इलाज किया जाता है, उसको सूर्य ग्रह के साथ संयुक्त कर मनुष्य के सूक्ष्म अवयव पर पडने वाले सूर्य के प्रभाव को स्वीकार किया गया है।
सूर्य अग्नि तत्व का उत्पादक होने के कारण ह्रदय की उष्मा तथा उर्जा प्रदान करने वाला महत्वपूर्ण ग्रह है। अब तक मेरा अनुभव यह है कि ग्रीष्म ऋतु में अग्नि तत्व की वृ्द्धि होने के कारण सबसे ज्यादा हार्ट अटैक भी इसी मौसम में होते हैं। यहाँ पश्चिम भक्तों को मेरा ये चैलेन्ज है कि इस कथन को गलत सिद्ध कर के दिखा दें तो भविष्य में इसी ब्लाग पर मेरा प्रत्येक लेख आपको ज्योतिष के विरोध में ही लिखा मिलेगा। सूर्य को जगत की आत्मा कहने के पीछे भी यही रहस्य छिपा हुआ है।
चन्द्रमा मन का कारक ग्रह है, जो "चन्द्रमा मनसा जातो" इस वाक्य से सुप्रमाणित है। चन्द्रमा अपनी कलाओं के माध्यम से ही हमारे मन को संचालित करता है। पूर्णिमा को जब पूर्ण चन्द्रोदय होता है, उस समय समुद्र में ज्वार भाटा उत्पन होता है और मनुष्यों में मानसिक रोगों का आवेग भी सर्वाधिक रूप में इसी तिथि को दिखाई देता है। इसीलिए हमारे पूर्वज ऋषि मुनियों द्वारा पूर्णिमा के दिन व्रत, तीर्थ-स्नान, पूजन एवं जप इत्यादि का विधान बनाया गया है, जिससे कि मनुष्य का मानसिक संतुलन बना रहता है।
सूर्य और चन्द्रमा के अतिरिक्त अन्य ग्रहों के पंचतत्वात्मक प्रतिनिधित्व को इस प्रकार निरूपित किया गया है।
मंगल अग्नि तत्व का, बुध पृ्थ्वी तत्व का, बृ्हस्पति आकाश तत्व का, शुक्र जल तत्व का और शनि वायु तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। मनुष्य के शरीर में इन तत्वों की कमी अथवा वृ्द्धि का कारण तात्कालिक ग्रह स्थितियों के आधार पर जानकर ही कोई भी विद्वान ज्योतिषी भविष्य में होने वाले किसी रोग-व्याधी का बहुत ही आसानी से पता लगा लेता है। क्यों कि इन पंचतत्वों का असंतुलन एवं विषमता ही शारीरिक रोग-व्याधी को जन्म देता है।
इसलिए प्राचीनकाल में ज्योतिष के विद्यार्थी को आयुर्वेद की शिक्षा भी साथ ही प्रदान की जाती थी तथा चिकित्सक ,वैधक भी ज्योतिष विद्या में पारंगत हुआ करते थे । जिससे कि रोगी के शरीर में जिस भी तत्व की कमी या अधिकता है, उसे जानकर शरीर में विद्यमान अन्य तत्वों के साथ उसका उचित संतुलन रखा जा सके।
जैसे कि मान लीजिए किसी व्यक्ति पर सूर्य ग्रह का विशेष प्रभाव है तो उसके शरीर में अग्नि तत्व की प्रधानता होगी । अब यदि वो व्यक्ति अधिक मात्रा में जलीय पदार्थो का सेवन करे तो उसके शरीर में अग्नि तत्व की अधिकता का कोई दुष्प्रभाव नहीं हो पाएगा अर्थात जल तत्व को बढाकर अग्नि तत्व की विषमता को कम किया जा सकता है । ठीक इसी प्रकार से शरीर में अन्य तत्वों का भी सही सन्तुलन बनाए रखा जा सकता है।
ग्रह,नक्षत्र,तारे,वनस्पतियाँ,नदी,पर्वत,समस्त जीव जन्तु इत्यादि इन्ही पंचभूतों से निर्मित हुए हैं। वैदिक ज्योतिष की बात की जाए तो इसके आधार में "यथा पिंण्डे तथा ब्राह्मंडे" का यही एक सूत्र काम करता है। इसी आधार पर ग्रहों एवं नक्षत्रों से पृ्थ्वी पर उपस्थित प्राणियों के साथ आन्तरिक संबंध निरूपित होते हैं। अन्य पिण्डों के सापेक्ष सौरमंडल के पिण्डों का आपस में इतने निकट का सम्बंध है , जिस प्रकार से की एक मोहल्ले में बने हुए घरों का परस्पर सम्बंध एवं प्रभाव होता है।
इन ग्रह पिण्डों का पृ्थ्वी पर विद्यमान समस्त जड चेतन पदार्थों पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन तो हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा युगों पहले ही ज्ञात कर लिया गया था। केवलमात्र स्थूल प्रभाव ही नहीं अपितु उनके सूक्ष्मतम प्रभाव के सम्यक विवेचन का नाम ही वैदिक ज्योतिष है।
अन्य जीवों की अपेक्षा मानवी मस्तिष्क की जटिलता तो सर्वविदित ही है।
ह्रदय की स्पन्दनशीलता(धडकनों) में विकृ्ति आने पर जिस ह्रदय रोग(heart attack) का आधुनिक तकनीक से निदान एवं इलाज किया जाता है, उसको सूर्य ग्रह के साथ संयुक्त कर मनुष्य के सूक्ष्म अवयव पर पडने वाले सूर्य के प्रभाव को स्वीकार किया गया है।
सूर्य अग्नि तत्व का उत्पादक होने के कारण ह्रदय की उष्मा तथा उर्जा प्रदान करने वाला महत्वपूर्ण ग्रह है। अब तक मेरा अनुभव यह है कि ग्रीष्म ऋतु में अग्नि तत्व की वृ्द्धि होने के कारण सबसे ज्यादा हार्ट अटैक भी इसी मौसम में होते हैं। यहाँ पश्चिम भक्तों को मेरा ये चैलेन्ज है कि इस कथन को गलत सिद्ध कर के दिखा दें तो भविष्य में इसी ब्लाग पर मेरा प्रत्येक लेख आपको ज्योतिष के विरोध में ही लिखा मिलेगा। सूर्य को जगत की आत्मा कहने के पीछे भी यही रहस्य छिपा हुआ है।
चन्द्रमा मन का कारक ग्रह है, जो "चन्द्रमा मनसा जातो" इस वाक्य से सुप्रमाणित है। चन्द्रमा अपनी कलाओं के माध्यम से ही हमारे मन को संचालित करता है। पूर्णिमा को जब पूर्ण चन्द्रोदय होता है, उस समय समुद्र में ज्वार भाटा उत्पन होता है और मनुष्यों में मानसिक रोगों का आवेग भी सर्वाधिक रूप में इसी तिथि को दिखाई देता है। इसीलिए हमारे पूर्वज ऋषि मुनियों द्वारा पूर्णिमा के दिन व्रत, तीर्थ-स्नान, पूजन एवं जप इत्यादि का विधान बनाया गया है, जिससे कि मनुष्य का मानसिक संतुलन बना रहता है।
सूर्य और चन्द्रमा के अतिरिक्त अन्य ग्रहों के पंचतत्वात्मक प्रतिनिधित्व को इस प्रकार निरूपित किया गया है।
मंगल अग्नि तत्व का, बुध पृ्थ्वी तत्व का, बृ्हस्पति आकाश तत्व का, शुक्र जल तत्व का और शनि वायु तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। मनुष्य के शरीर में इन तत्वों की कमी अथवा वृ्द्धि का कारण तात्कालिक ग्रह स्थितियों के आधार पर जानकर ही कोई भी विद्वान ज्योतिषी भविष्य में होने वाले किसी रोग-व्याधी का बहुत ही आसानी से पता लगा लेता है। क्यों कि इन पंचतत्वों का असंतुलन एवं विषमता ही शारीरिक रोग-व्याधी को जन्म देता है।
इसलिए प्राचीनकाल में ज्योतिष के विद्यार्थी को आयुर्वेद की शिक्षा भी साथ ही प्रदान की जाती थी तथा चिकित्सक ,वैधक भी ज्योतिष विद्या में पारंगत हुआ करते थे । जिससे कि रोगी के शरीर में जिस भी तत्व की कमी या अधिकता है, उसे जानकर शरीर में विद्यमान अन्य तत्वों के साथ उसका उचित संतुलन रखा जा सके।
जैसे कि मान लीजिए किसी व्यक्ति पर सूर्य ग्रह का विशेष प्रभाव है तो उसके शरीर में अग्नि तत्व की प्रधानता होगी । अब यदि वो व्यक्ति अधिक मात्रा में जलीय पदार्थो का सेवन करे तो उसके शरीर में अग्नि तत्व की अधिकता का कोई दुष्प्रभाव नहीं हो पाएगा अर्थात जल तत्व को बढाकर अग्नि तत्व की विषमता को कम किया जा सकता है । ठीक इसी प्रकार से शरीर में अन्य तत्वों का भी सही सन्तुलन बनाए रखा जा सकता है।
सौजन्य - प शर्मा
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